Friday, January 28, 2011

दोस्ती का रिश्ता

दोस्ती का रिश्ता.... शब्द आसान पर मतलब कठिन. शब्द का मतलब समझने चलो तो समझने में कहो कितने ही दिन निकल जाये -
      " दोस्ती गीत है और गजल भी है दोस्ती ,
       दोस्ती उम्मीद है  तो तरंग भी है दोस्ती ,
       दोस्ती ताकत है तो कमजोरी भी है दोस्ती ,
       दोस्ती दिल से निकली दुआ है तो प्रार्थना भी है दोस्ती ,"


दोस्ती के कई रंग है बस समझ है हमारे समझने की,की हम अपने दोस्त को कितना समझ पाते है ,दोस्ती भी एक रिश्ता है जैसे मम्मा , पापा ,भाई ,बहन इन सब की तरह ही एक दोस्त भी होता है .जब हम छोटे थे यानी की नर्सरी में तब भी हमारे दोस्त थे लेकिन तब हमे समझ नहीं थी की ये रिश्ता है या टाइम पास .बहुत पुरानी कहावत है किसी भी रिश्ते को बनाने में टाइम लगता है पर बिगड़ते समय सेकंड्स में ही बिगड़ हो जाता है खैर फिलहाल हम बात कर रहे है दोस्ती की दोस्तों की बात करे तो दोस्तों की संख्या तो बहुत है पर उनमे कुछ खास है जैसे विश्वविधालय में पल्लवी मोर्या .इनके बारे में क्या कहे "बला की खुबसूरत है की कुछ कहा नहीं जाता" खूबसूरती के साथ साथ भगवन ने  इनको दिमाग भी इनकी ख़ूबसूरती के हिसाब से ही है कहते है आँखे दिल की जुबान होती है सच ही है वो इसलिए की जो इनके दिल में होता है वो साफ़ इनकी आँखों में दिखाई दे ही जाता है .दोस्ती एक खूबसूरत पहचान है जो बिना किसी स्वार्थ क निभाई जाये तब तक अच्छी लगती है पर अगर इसमें किसी तरह का स्वार्थ आ जाये तो दोस्ती दोस्ती नहीं रह जाती इस बात को वो अच्छी तरह समझती शायद यही कारण है की हमारे बीच कभी कोई समस्या नहीं हुई ये दोस्ती की ही एक पहचान होती है वो उसका भोलापन वो मासूमियत और वही एक बच्चे की तरह शरारत करना और मेरी कोई भी समस्या हो उसको अपनी समस्या बना लेना I 
उसे  देखकर  लगता  है  के ख़ूबसूरती  और   अच्छाई  का  सही  तालमेल  क्या  होता  है, उस पर यह लाइन बड़ी स्टिक बैठती है "अति का भला न बोलना , अति की भली न चुप" बस उतना बोलती है जितना जरूरी हो...न ही किसी से बैर है, न कोई शिकवा....ज़िन्दगी जीने का अलग ही ढंग है उसका... सबसे खूबसूरत आँखें हैं उसकी , बड़ी-बड़ी काली आँखें जिनमे कोई भी डूब जाये...पर उन आँखों से ज्यादा खूबसूरत है उसका दिल ...सबकी मदद के लिए हमेशा तैयार रहती है....ज़िन्दगी की खूबसूरत इनायत है वो ....
ज़िन्दगी को खूबसूरती के साथ जीने की कला आती है उसको, हर पल को एक जीवन्तता के साथ जीते हुए ज़िन्दगी की राहों में आगे बढती  ही जाती है...खूबसूरती के मायने सिर्फ चेहरे का खूबसूरत होना ही नही बल्कि दिल का खूबसूरत होना है और ये बात मैंने उस शक्स से सीखी है जिसने हर पल हर कदम मेरा साथ दिया है , सिर्फ दोस्त ही नहीं एक साथी का फ़र्ज़ भी अदा किया है उसने...ज़िन्दगी के हर मुश्किल मोड़ पर साथ दिया है उसने .....
शायद आपको भी एक ऐसे दोस्त की जरूरत है जो मेरे पास है , जैसी  दोस्त मेरे पास है...सिर्फ दोस्त कह देना दोस्ती नही होती बल्कि उसे निभाना पढ़ता है, उम्मीद है आपकी तलाश जरुर पूरी होगी... 

Thursday, January 27, 2011

जिन्दगी का एक ये भी पहलु.........


 ..जिन्दगी में भी अजीब रंग होते है कभी ख़ुशी के तो कभी गम. कभी हसाती है तो कभी रुलाती है ये जिंदगी,कभी रूठना तो कभी मानना लगा ही रहता है उसी तरह पसंद और न पसंद भी जिन्दगी का ही एक हिस्सा है कब क्या चीज पसंद आ जाये और कब क्या नपसंद हो जाये कुछ कहा नहीं जा सकता क्योकि ये तो हमारी मर्जी पर आश्रित होता है ठीक उसी तरह हमारी जिन्दगी का हिस्सा है चश्मा सुनने में तो अजीब लगता है पर क्या कर सकते है क्यों की सच तो ऐसा ही होता है कभी डाट पड़ती है चश्मा लगाने के लिए तो कभी न लगाने के लिए इसीलिए तो कहते है की जिंदगी बहुत रंग दिखाती है या कह सकते है की हर सिक्के के दो पहलु होते है जब हम छोटे थे और घर में दादा ,दादी, नाना,नानी या फिर पापा जिनके भी चश्मा लगा हो उनका चश्मा चोरी से लगाते पकडे गए तो बहुत डाट पड़ती थी और अगर हम टी. वी. पास से देखते मिल गए मम्मी को तब तो समझो सामत आ गई क्योकि पास से टी. वी. देखने से आँखे खराब होने का डर रहता है यानी की ले-दे कर चश्मे पर ही बात अटकती है और अगर कही चश्मा लग गया है और तब नहीं लगाया है तब भी क्रोध का शिकार बनना पड़ता है ये तो बात थी घर की . और अगर बात करे चश्मों की तो चश्मा भी किसी भी प्रकार से किसी से काम नहीं है अरे चश्मे भी एक से एक आते है फैशन में भी और जिनकी आँखे कमजोर है उनके लिए भी कई तरह के चश्मे आते है जो देखने में भी अछे लगते है जैसे गोल , चौकोर , आयताकार अरे अब तो हम अपनी पसंद और नपसंद के चश्मे पहन सकते है . एक था चश्मा गाँधी जी का और आज के चश्मे जैसे "प्यार इम्पोसिबिल" में'प्रियंका चोपड़ा'और'उदय चोपड़ा'ने लगाया इसे भी देखकर लोगो ने इसी पसंद किया और बहुतो को लगाये भी देखा गया और वही कुछ पीछे नज़र डाली जाये तो फिल्म मुहब्बतें में शाहरुख़ खान का चश्मा भी पसंद किया गया ये तो बात थी उन चश्मों की जिन्हें हम तब लगाते जब हमारी आँखे कमजोर होती है चश्मे भी कई रंग के आते है काला,पीला, लाल, भूरा, मैरून, रंग के शीशे होते है जैसे अभी हाल ही में आई फिल्म "एक्शन रिप्ले" जिसमे भी 'अक्षय कुमार'और'ऐश्वर्या राय बच्चन 'ने भी काफी पुराने फैशन को दोबारा लाने की कोशिश की है ये बात अलग है की फिल्म हित नहीं हुई है ऐसी ही बहुत सी फिल्म है जिनमे चश्मों का अच्छा खासा इस्तेमाल हुआ है जैसे की "ॐ शांति ॐ ""डान" आदि और वैसे भी फिल्मो का आधे से ज्यादा फैशन पब्लिक ही अपनाती है आज-कल के लोग गाडी चलाते समय हेलमेट से ज्यादा लोग चश्मा लगाना पसंद करते है फैशन का फैशन हो जाता है साथ ही साथ आँखों का बचाओ भी हो जाता है ."चश्मा ओ चश्मा तेरे भी रूप अनेक"  क्योकि चश्मा ऐसी चीज है जो चेहरे की शोभा बड़ा भी सकती है तो घटा भी सकती है ..........जरा संभाल कर अपनाये अपना चश्मा .  

Tuesday, January 25, 2011

हम सबकी यादें

ये राहें जो हर तरफ जाने के लिए होती है  केवल फर्क ये होता है की तय हमें करना है की हमे जाना कहा है , हमारी मंजिल कहा है ये तय हमे ही करना है . जब हम घर से कही जाने के लिए निकलते है तो कई बार रास्ते में कई ऐसी बाते हो जाती है जो हमे हमेशा के लिए हमारी यादो में बस कर रह जाती है क्या कभी किसी ने ये सोचा है जो घटना  हम देखते है वो जब हमे जिंदगी भर याद रह जाती है तो वो बात जिनके साथ होती है क्या वो कभी भूल पाते है कभी वो इन बातो को अपने दिल से भुला पाने में सफल हो पाते है . जो पल हम जीते है वो बाद में यादे बनकर ही रह जाती है ऐसे ही हम जब स्कूल से पास हो कर विश्वविधालय में जाते है तो हमे वो स्कूल के दिन बहुत याद आते है वैसे ही आज विश्वविधालय के ये दिन जो दोस्तों के साथ हँसते-खेलते लड़ते झगते बीत जाते है वो यादे ही याद रह जाती कुछ यादे खट्टी होती है कुछ मीठी होती है पर अछी दोनों ही लगती है. जब हम घर से  विश्वविधालय और विश्वविधालय से घर आते है तो रास्ते में "बैकुण्ड धाम" पड़ता है कभी-कभी तो उसके सामने कुछ भीड़ तो हमेशा रहती है कभी-कभी ही वो रास्ता खाली मिलता है पर वही कभी-कभी बहुत भीड़ रहती है पर कुछ दिनों में तो जैसे आदत ही पड़ गई थी उस भीड़ की पर सायद इसकी आदत उन लोगो को नहीं थी जो वह पर सिर्फ उस दिन ही गए थे वो दर्द उनका अपना ही है उसको न  हम समाज सकते है और न हम महसूस कर सकते है इस दर्द को मैंने तब महसूस किया जब उसी जगह पर मैंने एक 5 से ६ साल के बच्चे को रोते चिल्लाते हुए देखा मैंने उससे पूछा की क्या हुआ तब वह पर खड़े एक लड़के ने बताया की उसकी माँ का देहांत हो गया है उस बच्चे को देख कर शायद मैंने उस दर्द को महसूस किया  
की हम उन स्कूल और विश्वविधालय की यादो को याद करके खुश होते है जबकि उनसे तो हम मिलते भी है और बातें भी होती है तो उनकी क्या कहे जो कभी दोबारा नहीं मिल पाते . 

Sunday, January 23, 2011

तन्हा या साथ

इस दुनिया में थे हम तन्हा-तन्हा से ,
पर थी एक छोटी सी आस ,
जो है दूरी आज,वो न होगी कल
पर एक दिन ....
हमे तो लगा हम है साथ-साथ ,
पर देखा जो पलट कर,
पाया खुद को सबसे तन्हा-तन्हा
इस दुनिया में हम थे तन्हा-तन्हा......

मजदूर वर्ग

                                    इस अत्याधुनिक और विकसित देश में जहाँ इमारतो पर इमारते खड़ी होती जा रही है. हमारा देश जो दिन पर दिन एक विकसित देश में बदलता जा रहा है. जहा पर खूबसूरत भव्य बंगले, शापिंग  माल, अत्याधुनिकता को झलकाते फ्लैट्स, सिनेमा घर, और एक से एक शानदार होटल जिनका बुनियादी सुविधा देखते ही बनती है, आजकल लोग कॉलेज में दाखिला लेने से पहले उसकी बनावट को देखते है, होटल में जाने से पहले उसका भव्यतम और खूबसूरती में ढला रूप देखते है.
                                  मजदूर शब्द जो कठोर मेहनत का पर्याय लगता है. मजदूर वो होता है जिसके पास अपनी इक्छानुसार उपयोग करने के लिए जरा भी स्वतंत्र समय नहीं है, जिसका पूरा जीवन, सोने, खाने आदि चंद शारीरिक जरूरतों के लिए पूंजीपतियों के लिए मेहनत करने में ही खर्च होता है, अरे वो तो बेचारा बोझा ढ़ोने वाले पशु की तरह बन कर ही रह जाता है या महज एक मशीन बन जाता है, उसका शरीर सुबह से शाम मजदूरी करते-करते जर्जर हो जाता है, एक गरीब मजदूर को अपनी आजीविका चलने के लिए अपनी पत्नी और बच्चो सहित दिनभर कोल्हू के बैल की तरह जुटा रहता है, शाम को सारा काम निपटा के उसे जो मजदूरी मिलती है, उसी से शाम को उसके घर का चूल्हा जलता है, और दो वक्त की रोटी नसीब होती है, जबकि इन पूंजीपतियों के कुत्ते भी महंगे बिस्कुट खाते है, और गरीब मजदूर का छोटा सा मासूम बच्चे बड़े लोगो के दरवाजे के किनारे खड़ा- खड़ा सब देखता रहता है, और अन्दर से कोई नौकर अपने मालिक के कहने पर उसे भगा देता है, आखिर क्या है ये ? एक मजदूर जो हमें रहने को सुन्दर सा मकान बना कर देता है जिसमे हम अपने सपनो का आइना सजाते है, उसी मजदूर का इतना शोषण होता है, आखिर कब तक चलता रहेगा ये सब , क्योंकि अगर इस पतन को रोका नहीं गया तो ये पूंजीपति अपने पैसे के बल पर उनको कुचल कर रख देंगे सर्कार को मजदूर वर्ग के लिए कुछ नियम बनाने चाहिए और उन नियमो को लोगो को मानना भी चाहिए. 
                                      आजभी ऐसे कई कारण है जिनके कारण जीवन मूल्य गिरते जा रहे है समृधि के इस दौर में जब लोगो को अधिक मुनाफा हो रहा है. यदि मजदूर वर्ग में भी अपनी मजदूरी बदने के लिए संभव प्रयास नहीं किये गए तो वह इस शोषण में घिरता चला जायेगा क्योकि चाहे जो हो इस दुनिया में हर इंशान को अपने हक़ के लिए लड़ना पड़ता है, फिर वो चाहे जो भी हो............